Sunday 6 July 2014

‘गजल’

‘गजल’
जिन वजहों से, आंगन में दीवार खड़ी की
अब भी गड़ी हैं, दीवार पर वे कांच की तरह।
चूल्हे की आग बांट ली है, राख बांट ली
खटकता है धुंआ, अब भी मन में खार की तरह।
हिलती रही बुनियाद, जैसे बूढ़े का हो जिस्म
मजबूत थी दीवार तो, फौलाद की तरह।।
दिल में जगह है रहने की, न कर फिजूल बात
दीवारों में बटां है लहू, औलाद की तरह।
आये थे जिन्दगी में कभी साज की तरह
होते हैं घर में दाखिल, वे-आवाज की तरह।

No comments:

Post a Comment