Sunday 6 July 2014

गज़ल


 बैर और प्रतिशोध की दीवारें तोडि़ये
 इन्सानियत ही धर्म है, नाता जोडि़ये।
 इन्सान बन के देख लो, अपने हैं सब यहां
 भगवान के लिये, मजहब न छोडि़ये।
 कौन सी लय, छन्द, भाषा और कैसी अर्चना
 संवेदना के गीतों से, रुह को झिझोडि़ये।
 नफरत का समन्दर पुकारे, घड़ी-घड़ी
 मोहब्बत में डूबी मन की, गंगा को मोडि़ये।
 जाति की किरकिरी न हो, आंखों में किसी के
 सूरज मिलेगा एक, किसी दिशा में दौडि़ये।

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