बैर और प्रतिशोध की दीवारें तोडि़ये
इन्सानियत ही धर्म है, नाता जोडि़ये।
इन्सान बन के देख लो, अपने हैं सब यहां
भगवान के लिये, मजहब न छोडि़ये।
कौन सी लय, छन्द, भाषा और कैसी अर्चना
संवेदना के गीतों से, रुह को झिझोडि़ये।
नफरत का समन्दर पुकारे, घड़ी-घड़ी
मोहब्बत में डूबी मन की, गंगा को मोडि़ये।
जाति की किरकिरी न हो, आंखों में किसी के
सूरज मिलेगा एक, किसी दिशा में दौडि़ये।
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