Thursday 3 July 2014

‘परमात्मा का द्वार’


 मन्दिर हों, मस्जिद हों, गुरूद्वारे या फिर चर्च हो उनके निर्माण में ईंट गारे ही नहीं होते अपितु श्रद्धा, आस्था और विश्वास भी होता है। धर्मस्थलों की नींव में क्रूरता, झूठ, हिंसा, चोरी और अन्य अनैतिकताओं के विचारों को गहराई में चिनवा दिया जाता है ताकि वे फिर कभी सिर न उठा सकें ओम्-ओम या ऐसी ही किसी मंत्र की पवित्र ध्वानि से खण्डों को बांध कर दीवारें बनाई जाती है। सद्भावना, मैत्री, प्रेम और करूणा के स्तम्भों पर शान्ति की छत डाल दी जाती है, वो आसमान सी ऊँची छत जो हमें झुकना सिखाती है, हमारा अहंकार विसर्जित होता है। प्रत्येक धर्म स्थल का फर्श भी प्रेरणा देता है। इस फर्श पर चलने बालों के पैर कभी डगमगाते नही हैं, भटकते नहीं हैं। क्योंकि संभालने बाला तो कोई और ही हैं।
 उसकी विराटता के आगे अपनी लघुता समझ में आती है। उसकी महानता के सामने अपनी दीनता दिखाई पड़ती है।
  आईये किसी भी धर्मस्थल में प्रवेश करे परन्तु मन के बुरे विचारों को बाहर ही छोड़ दें, चप्पलो के साथ फिर वहां से वापिस जाते समय सिर्फ अपने चप्पल या जूते पहिने और उन दूर्षित विचारों को, फिर  वापिस साथ में न ले जायें क्योंकि अभी-अभी मन पवित्र कर के लौटे हैं।

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