Wednesday 9 July 2014

‘दीप’
अंधेरों को दे चुनौती, घोर तम को पी रहा
फ्ररव से गर्दन उठाये, सूर्य बन कर जी रहा।
भगवान के चरणों में रख दो, आरती बन जाऊँगा
मैं तुम्हारी श्रद्धा का विश्वास बन कर जी रहा।

‘माँ’
जबसे शहर ने डाल दी, पैरों में जंजीर
मां यादों में बस गई बन कर इक तस्वीर।
दुख-सुख किससे बांट लूं, बेटा होय अधीर
शहर में सब बहरे मिले, कौन बंधाये धीर।
जादू जानती हो मां तुम, या कोई तदबीर
पानी में चावल को पकातीं, बन जाती है खीर।
हाथ में रेखा पुत्र की, पुत्र बहुत ही दूर
कोसों के है फासले, सागर गहरी पीर।
जीवन के संग्राम में वो, ढ़ाल वो ही शमशीर
इस ढ़ाल को कोई छेद सके, अभी बना नहीं वो तीर।

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